Tuesday, January 1, 2019

.. वरना सच्ची बात ये है मस'अला कोई नहीं

आशना  होते  हुए भी आशना कोई नहीं
जानते हैं सब मुझे, पहचानता कोई नहीं

एक तन्हा मेरे ज़िम्मे क्यों हैं कार-ए-एहतिजाज
बोलना सब जानते हैं, बोलता कोई नहीं

म'यकशी की भी सज़ा है, ख़ुदकशी की भी सज़ा
कौन किस मुश्किल में है, ये देखता कोई नहीं

मुख़तलिफ़ लफ़्ज़ों में ये है अब मिज़ाज-ए-दोस्ती
राब्ता सब से है लेकिन, वास्ता कोई नहीं

हमने ख़ुद पैदा किये हैं ज़िंदगी में मस'अले
वरना सच्ची बात ये है मस'अला कोई नहीं

ख़ुद कलामी थी जिसे मैं गुफ़्तगू समझा किया
मैं अकेला था, यहाँ आया-गया कोई नहीं

हुस्न हो ना-महरबाँ, या इश्क़ ही बे-महर हो
हार दोनों की है इसमें जीतता कोई नहीं

एक पत्थर आज मेरी आँख पर आकर गिरा
मैं ग़लत समझा, मुझे पहचानता कोई नहीं

(મિત્રએ મોકલેલી અને ગમી ગયેલી કવિતા)

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